रमन कांत। मानव गतिविधियों के चलते हमारी धरती अनेक प्रकार के झंझावत झेल रही है। बेतरतीब विकास और प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन से पृथ्वी का संकट गहरा रहा है। यही कारण है कि आए दिन किसी न किसी हिस्से में प्राकृतिक तबाही होती रहती है। दुबई शहर बेमौसम बरसात के कारण कराह उठा। 16 अप्रैल को हुई घनघोर बारिश ने वहां जनजीवन अस्त-व्यस्त कर दिया। वहां एक ही दिन में 250 मिलीमीटर से भी अधिक बरसात हुई। दुबई में इतनी बरसात दो वर्षों में होती है। दुबई की सारी चकाचौंध प्रकृति के एक झटके से बेरौनक हो गई। दुबई में बारिश के कहर के तीन दिन बाद पाकिस्तान ने प्रकृति की मार झेली। वहां हुई जोरदार बारिश के कारण 80 से अधिक लोगों की जान गई और सैकड़ों घर क्षतिग्रस्त हो गए। हिमाचल प्रदेश में भी अप्रैल माह में हिमपात देखने को मिल रहा और वह भी उस समय जब देश के कई हिस्सों में समय से पहले गर्म हवाएं चल रही हैं। बीते दिनों हैदराबाद में भी भारी बारिश देखने को मिली। ऐसी घटनाएं विश्व भर में अब कहीं अधिक देखने को मिल रही हैं। प्रकृति का ऐसा व्यवहार जहां चिंतनीय है, वहीं यह सोचने पर भी मजबूर कर रहा है कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? यह तथ्य किसी से छुपा नहीं कि इन सब घटनाओं के मूल में जलवायु परिवर्तन है। जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणाम वर्ष भर नए-नए रूप में प्रकट होते ही रहते हैं।

यह सर्वविदित है कि मानव की प्रकृति के प्रतिकूल गतिविधियां धरती का तापमान लगातार बढ़ा रही हैं। महासागर हों या पहाड़, नदियां हों या खेती की जमीन सब जगह प्रकृति कराह रही है। अनेक देशों में पहाड़ी क्षेत्रों के जलाशय सूख रहे हैं और वन क्षेत्र सिकुड़ रहे हैं। इसी कारण आए दिन जब जंगली जानवर अपनी प्यास बुझाने बाहर आते हैं तो मानव के साथ उनका संघर्ष होता है। जंगलों की घटती नमी के कम होने और अत्यधिक तापमान के कारण जंगलों में आग लगने के मामले भी बढ़ रहे हैं। बरसाती नदियां सूख रही हैं तो बड़ी नदियों में पानी की मात्रा लगातार घट रही है। खेती वाली जमीन में कार्बन तत्व लगातार घट रहा है। इससे अन्न उत्पादन पर भी असर पड़ा रहा है। एक ही देश के अलग-अलग हिस्से सूखे और बाढ़ की चपेट में आ रहे हैं। जलवायु परिवर्तन की समस्या बढ़ाने के कारणों में बढ़ती आबादी और उसका उपभोक्तावाद भी शामिल है। अधिक आबादी की जरूरतें पूरी करने के लिए तथा अधिक से अधिक उपभोग करने की प्रवृत्ति के चलते प्रकृति के संसाधनों का अधिक दोहन हो रहा है। उपभोक्तावाद के चलते ही कार्बन डाईआक्साइड, क्लोरो फ्लोरो कार्बन और मीथेन जैसी ग्रीनहाउस गैसें अधिक मात्रा में वातावरण में पहुंच रही हैं। उपभोग की वस्तुओं के निर्माण से लेकर दैनिक जरूरत के पानी की खपत लगातार बढ़ रही है, जबकि उसका संरक्षण उस अनुपात में नहीं किया जा रहा है।

कई देशों में जगह-जगह कचरे के पहाड़ बन रहे हैं। दुनिया में प्रति वर्ष लाखों टन प्लास्टिक कचरा उत्पन्न होता है, जिसके वर्ष 2050 तक कई गुना बढ़ने का अनुमान है। भारत में भी अच्छा-खासा प्लास्टिक कचरा पैदा होता है, जो विगत पांच वर्षों में दोगुना हुआ है। इसमें करीब 90 प्रतिशत कूड़े के ढेर, नदी और नालों में जाता है। प्लास्टिक कचरे से पृथ्वी की जैव-विविधता बुरी तरह प्रभावित होती है। इस कचरे के छोटे-छोटे कण धीरे-धीरे पानी में घुल जाते हैं। इसका मानव स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव होता है। प्लास्टिक का कचरा धरती के लिए एक बहुत बड़ा संकट बन गया है, लेकिन उसका उपयोग कम करने की कोई ठोस पहल नहीं हो रही है। प्लास्टिक के कचरे से महासागर अटे पड़े हैं। वह अन्य तरह से भी धरती की सेहत के लिए खतरा बन रहा है। इसी कारण इस वर्ष पृथ्वी दिवस की थीम धरती बनाम प्लास्टिक है। चूंकि प्लास्टिक से बहुत नुकसान हो रहा है इसलिए उससे छुटकारा पाने के लिए ठोस कदम उठाने ही होंगे।

पृथ्वी की संपूर्ण जैव-विविधता खतरे में पड़ गई है। मानव गतिविधियों के कारण पृथ्वी हांफने लगी है। उसकी ऐसी हालत किसी के भी हित में नहीं है। कोई दूसरी पृथ्वी नहीं है। अभी समय है चेतने का, सुधरने का और उपभोक्तावाद पर लगाम लगाने का। अगर हम अब भी नहीं चेते तो संकट इतना गंभीर हो सकता है कि उससे निपटना मुश्किल हो जाए। धरती को बचाने के उपाय अमल में लाने में पहले ही देर हो चुकी है। सरकारों के साथ समाज को भी यह समझना होगा कि आधुनिक जीवनशैली में बदलाव लाए बिना बात बनने वाली नहीं है। हमें भौतिकतावादी जीवन छोड़ना होगा। खाने-पीने की चीजों की बर्बादी रोकनी होगी और बिजली-पानी का किफायती उपयोग करना सीखना होगा। हमें यूज एंड थ्रो संस्कृति का परित्याग करना होगा। यह संभव नहीं कि कुछ लोग तो जीवनशैली बदलें और शेष लोग यह मानकर चलते रहें कि उन्हें ऐसा करने की आवश्यकता नहीं। यह सोच भी सही नहीं कि जलवायु परिवर्तन रोकने की जिम्मेदारी पर्यावरण संगठनों और सरकारों की है। सरकारें और पर्यावरण संगठन तभी कुछ हासिल कर पाएंगे, जब लोग भी उनका सहयोग करने के लिए तत्पर होंगे। यह तत्परता सभी को दिखानी होगी-उन्हें कुछ अधिक, जो एसी, लक्जरी कारों, विमानों आदि का प्रयोग अधिक करते हैं। धरती की रक्षा में उसके संसाधनों का अधिकाधिक उपभोग करने वालों की जिम्मेदारी अधिक है, क्योंकि भारत सरीखे देशों को गरीबों के जीवनस्तर में भी सुधार करना है।

(लेखक भारतीय नदी परिषद के अध्यक्ष हैं)